यहाँ है रानी लक्ष्मीबाई की जन्मस्थली

आप बस सोच कर के देखिये की वो अंग्रेज जिन्हें अपने यहाँ महिलाओं को कोर्सेट में देखने की आदत थी उन्हें घोड़े पे सवार और हाथ में तलवार और ढाल लिए हुए एक महिला को देख कर कितना बड़ा झटका लगा होगा। मैं बात कर रहा हूँ bravery की मिसाल कही जाने वाली झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की जिनकी वीरगाथाएं सुन सुन कर हम सब बड़े हुए हैं। आज के इस पोस्ट में मैं रानी लक्ष्मीबाई के बर्थ प्लेस पर उनके वीरता, उनका साहस और उनकी शहादत को नमन करने जा रहा हूँ। अगर मेरी तरह आप भी रानी लक्ष्मीबाई के साहस से प्रेरणा लेते आये हैं तो आईये इस पोस्ट के माध्यम से रानी लक्ष्मीबाई की जन्मस्थली की और चलते हैं और उनके जीवन से कुछ सिखने की कोशिश करते हैं। आप पढ़ रहे हैं Independence Day Special – Exploring the birth place of the icon of bravery।

वाराणसी की गलियों में है रानी लक्ष्मीबाई की जन्मस्थली

ये वाराणसी का वो हिस्सा है जो किसी घाट या मंदिर की वजह से नहीं जाना जाता। न ही ये कोई पूजा स्थल है लेकिन भारतीय देशभक्तों के लिए किसी पूजा स्थल या मंदिर से कम भी नहीं है। क्यूंकि यहाँ के मिट्टी से जुड़ा है सन १८५७ की क्रांति का इतिहास। ये वही मिट्टी है जहाँ पे भारतीय इतिहास की एक वीरांगना ने अपने नन्हे कदमों से चलना सीखा था। ये है वाराणसी के अस्सी क्षेत्र में स्थित रानी लक्ष्मीबाई की जन्मस्थली।

अपने जन्म से लेकर 3 साल तक मनु यानि की मणिकर्णिका ताम्बे ने बनारस के घाटों और गलियों में ही खेल कर अपना बचपन गुजारा। जिस उम्र में बच्चे प्ले स्कूल में जाते हैं, लकड़ी से बने तलवार से खेलना, सेना गठित करना, आपस में विवाद होने पर सही निर्णय लेना उनके प्रमुख खेल का हिस्सा थे। ये वही जगह है जहाँ से कुछ ही दूर पर स्थित है तुलसी घाट जहाँ श्री तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की थी।

कानपूर के नाना की मुँहबोली बहन ‘छबीली’ थी

वाराणसी के एक काफी लोकप्रिय घाट मणिकर्णिका घाट के नाम से प्रभावित हो कर लक्ष्मीबाई के माता पिता ने उनका नाम मणिकर्णिका रखा था और प्यार से मनु बुलाते थे। मनु को जन्म देने के बाद उनकी माता भागीरथी सापरे का २ वर्ष बाद ही निधन हो गया। १ वर्ष पश्चात् मनु को तत्कालीन पेशवा बाजिराओ द्वितीय ने अपने यहाँ बिठूर बुलवा लिया क्यूंकि मनु के पिता मोरोपंत ताम्बे पेशवा के मुख्या नायकों में से एक थे। पेशवा मनु को बेहद लाड करते थे और काफी चंचल होने की वजह से मनु को छबीली कहकर बुलाते थे।

बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी

लक्ष्मीबाई की परवरिश एक आम लड़की के तरह नहीं बल्कि एक योद्धा के तरह हुई। ये कहना गलत होगा की वो सिर्फ एक अकेली थी जिनकी परवरिश इस तरह से हुई थी और ये भी की लड़कियों को इसका हक़ नहीं था। हम देखते हैं की रानी लक्ष्मीबाई के गद्दी सँभालने के बाद कई और वीरांगनाओ का नाम आता है जिन्होंने रानी के साथ कंधे से कन्धा मिला कर युद्ध किया जैसे की झलकारी बाई।

बिठूर में ही मनु ने घुड़सवारी करने, तलवार चलाने और युद्ध कलाओं में महारत हासिल की जिसके बाद काम उम्र में ही उनकी शादी झाँसी के राजा गंगाधर राओ से हो जाती है। अपने मिलनसार और उदार स्वभाव के कारण जल्दी ही लक्ष्मीबाई ने लोगों के दिलों में जगह बना ली।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया

अभी रानी का घर बसा भी नहीं था की उनके ३ माह के बेटे का देहांत हो गया जिसके शोक में राजा गंगाधर राओ भी चल बसे। इस स्थिति का फायदा उठाकर लार्ड डलहौजी ने रानी के दत्तक पुत्र को मान्यता न देकर रानी से झाँसी छोड़ने को कहा। लक्ष्मीबाई ने साफ़ कह दिया” मैं झाँसी नहीं छोडूंगी”। रानी के इस एक कथन ने भारतीय स्वतंत्रता की इतिहास को जैस एक दिशा दे दी।

बहिन छबीलीनेरण-चंडी का कर दिया प्रकट आह्वान

संख्या में काम होने के बावजूद अंग्रेजी सेना को कड़ी टक्कर देते हुए लक्ष्मीबाई ने जमकर युद्ध किया। अंग्रेजों के बहुत कोशिश के बाद भी रानी ने आत्मसमर्पण नहीं किया और वहां से निकल कर बाकि तात्या टोपे के साथ मिल कर ग्वालियर किले पर कब्ज़ा कर लिया। ग्वालियर में हुए मुठभेड़ में रानी लक्ष्मीबाई ने भीषण युद्ध किया जिसमे वो बहुत घायल हो गयीं लेकिन अंग्रेजों के हाथ नहीं आयी। बहुत समय तक तो अंग्रेजों को पता भी नहीं चल पाया था की रानी जीवित हैं या नहीं और रानी के देहांत होने के बाद भी अंग्रेज ग्वालियर किले को २ दिन तक अपने कब्जे में नहीं ले पाए थे।

इस स्वतंत्रता-महायज्ञ में कई वीरवर आये काम

रानी लक्ष्मीबाई की इस लड़ाई ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रख दी। बाद के कितने ही लोगों ने उनसे प्रेरणा ले कर देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। युद्ध से पहले रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना से कहा था की “हम लड़ेंगे ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां आज़ादी का उत्सव मना सकें”।

ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

इस साल २०२३ में हम 76वां स्वतंत्रता दिवस मानाने जा रहें हैं। इस वीडियो के माध्यम से मैं लोगो से ये गुजारिश करना चाहता हूँ की जब कभी भी वो वाराणसी आएं रानी लक्ष्मीबाई के जन्मस्थली पर जरूर आएं। अपने बच्चों को वही सुभद्राकुमार चौहान की लिखी हुई कविता सुनाएँ जो हमने बचपन में सुनी है। “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।”

आभार

अगर आप कभी भी वाराणसी आते हैं तो ये पावन भूमि जहाँ हमारी प्यारी मनु और वीरांगना लक्ष्मीबाई ने अपना बचपन गुजारा है वहाँ जरूर आएं। यहाँ एक अखंड ज्योति सदैव जलती रहती है। हम उनके इस उपकार को तो कभी भुला नहीं सकते लेकिन रानी लक्ष्मीबाई की जन्मस्थली पर एक दिया जला कर आभार व्यक्त कर सकते हैं।

विदा

मुझे उम्मीद है की जिस तरह से रानी लक्ष्मीबाई के जीवन ने मुझे प्रभावित किया है उसी तरह आपको भी किया होगा। इस पोस्ट का एक मात्रा उद्देश्य रानी लक्ष्मीबाई को स्वतंत्रता दिवस के इस पावन अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करना और उनके जन्मस्थली के बारे में लोगों को जागरूक करना था।

इसी के साथ आज का ये अंक यहीं समाप्त होता है। मेरी तरफ से आप सभी भारत वासियों को स्वतंत्रता दिवस की ढेर सारी शुभकामनायें।

Viswajeet Kumar

Working professional, website designer and Blogger

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birthplace of Rani lakshmibai